This is one of the many poems written by my younger sister. I really love to read her poems. Whenever I go through her poems, I feel so proud of her.
आज कुछ पल हैं, अपने साथ होने को,
जीवन की रफ़्तार में अपनी गति समझने को,
मैं कठघरे में हूँ, उस मैं के आगे,
जो कभी मेरा आत्मीय था,
अब उसका होना ऐसे पलों पर आश्रित था.
मेरे दृश्य पटल पर सारा अतीत चलचित्र है,
अचंभित सी वहां अपनी मौजूदगी देखती हूँ,
दृश्य पर दृश्य अपने अस्तित्व की तलाश है,
पर अपनी पहचान धुधली नज़र आती है,
क्यूँ अपनी जय पराजय में मैं स्वयम दर्शक मात्र हूँ ?
जिंदगी चंद दस्तावेजों की ही मुहताज क्यूँ है?
क्या मेरा समर्पण मेरी जीत नहीं है ?
प्राणवान होना हास्य पैर नहीं स्वाश पर निर्भर है,
तो हँसने की ही चाह क्यूँ करती हूँ मैं?
क्या मेरे रुदन में कोई सार्थकता नहीं है?
क्यूँ अपनी नीयति को अपनाना नहीं आता मुझे ?
वो जो मेरे होने से भी अर्थहीन है,
उसके होने में अपने अर्थ की तलाश कैसी?
शायद इन सवालों के जबाब दूसरे सवाल ही हैं
और निष्कर्ष की चाह व्यथा को आमंत्रण.
-- वंदना वशिष्ठ